शुक्रवार, मार्च 25, 2011

प्रकृति की प्रेम-पाती

उपहार बना व्यापार!
वैधानिक चेतावनी
खुद को प्यार का पंछी कहने/समझने वाले और प्रेमी-प्रेमिका पीडि़त प्राणी इसे न पढ़ें। उनके दिल में हूक उठ सकती है। कमजोर दिल वालों के लिए तो यह और भी हानिकारक हो सकता है।

यह प्रकृति की प्रेम भरी पाती है... 'किसी अपने' की बेवफाई जब दिल में दबी नहीं रह पाई तो शब्दों के रूप में बह निकली। उसने तो लिखने के बाद भी दिल पर पत्थर रख लिया था और इसे अपनी डायरी में छुपा लिया था, लेकिन गलती से 'अर्थ ऑवर' पर बेची गई रद्दी में यह कबाड़ी तक पहुंच गई। वहीं से गुजरते हुए यह हमारे हाथ लग गई। अब हम ठहरे ढपोर शंख... इतना बड़ा राज भला अपने पेट में कैसे दफन कर लेते... तो ये है प्रकृति की प्रेम पाती का मजमून...

प्रिय मानव,
आज मेरे आंसू रोके नहीं रुक रहे हैं। अरे नहीं-नहीं... ये तो खुशी के आंसू हैं कि तुम्हें साल में कम से कम एक दिन तो मेरी याद (बेशक दिखाने मात्र को) आ ही जाती है। खैर है कि तुम 'उतने' बेवफा नहीं निकले। और तुम बेवफा हो भी कैसे सकते हो? तुमने तो कभी वफा ही नहीं की... तो बेवफाई कैसे करते?
धरतीपुत्र कहलाते हो, पर अपना पेट भरने के लिए उसी का सीना चीरते हो। तुम्हारी प्यास बुझाने के लिए तो सदा ही उसकी छाती से जलधारा बहती रही है, लेकिन तुम तो उसे सोख ही लेना चाहते हो। वो खुद सूरज की गर्मी में तपती है, पर वो ठहरा मां का मन... तुझ तक कोई आंच न आए, इसीलिए सींचे थे वन। लेकिन अपनी (स्वार्थ की) आग बुझाने को... जंगली बन तूने जंगलों की बलि ले ली। अपनी 'पावर' दिखाने को... 'ट्री'-'प्लांट' काटे और कदम-कदम पर रोप दिए पावर प्लांट। जगह-जगह सुलगा कर भट्ठियां, हो गया बहुत अमीर... जल बेचा, जमीन बेची और बेच दिया जमीर। कल-कल बहती... धूप-छांव सहती अमृतधारा-सी सरिता, कभी तपन का... कभी सीलन का अहसास कराती पवन, बारिश में महकते... वसंत में चहकते अनुपम वन जैसे मेरे हर उपहार को तूने व्यापार बना डाला। मैंने धरातल दिया... धरा को तूने माटी ही समझा... अब तल बचा है... उसको भी दिन-रात खोखला कर रहा है।
और हां... तू तो बड़ा अक्लमंद है ना! पहले हर चीज के व्यापार की बात की, अब सुधार की बात कर रहा है। तेरी वास्तव में अक्ल-मंद है... तभी तो हर बात देरी से समझ में आती है। मौज के लिए की गई तेरी हर खोज तुझ पर ही भारी पड़ रही है...। कांच बनाया... तेरे ही पांव में चुभने लगा। प्लास्टिक बनाया... खुद तो खत्म होता नहीं, उपजाऊ शक्ति जरूर खत्म कर देता है। तेल खोजा... धुआं बन तेरा ही दम घोट रहा है। बारूद खोजा... तेरे ही वंशजों को उड़ा रहा है। कैमिकल्स खोजे... जान लेने से जान देने तक के माध्यम बन रहे हैं। धातुएं तलाशी... हथियार बन तेरा ही शरीर छेद रही हैं। ऊंची-ऊंची इमारतें बनाईं, मेरी जरा सी करवट में तेरी कब्रगाह बन रही हैं। ठंडक के लिए बिजली बनाई... वही पर्यावरण को तपा रही है... इसके कारखानों से निकली गैसें मुझे 'एसिड रेन' के आंसू रुला रही हैं। लेकिन तू अब भी हालात की गंभीरता नहीं समझ पाया है... इसीलिए तूने 'अर्थ ऑवर' का स्वांग रचाया है। यदि तू कहता है- जाग गया हूं तो रोज 'अर्थ ऑवर' मना...।
सोच खुद ही... जड़ काटकर कभी पेड़ बचे हैं क्या? तू भी पेड़ों की नहीं, अपनी जड़ें काट रहा है। क्या नहीं दिया था मैंने? अपना सब कुछ तो अर्पित कर दिया था... हजारों सालों से सहेजा हरा-भरा खजाना, सुधामयी झरने-नदियां, आसमां छूता हिमालय, पाताल-से गहरे सागर, सुवासित प्राणवायु और तेरे मन की चंचलता समझ दी थी सतरंगी ऋतुएं। लेकिन न तू इन्हें समझ पाया और न ही सहेज पाया। रेगिस्तान में बर्फ और पहाड़ों पर सूखा देख भी तुझे अक्ल नहीं आ रही। जब रहने लायक हालात ही नहीं बचेंगे तो क्या करेगा धन-दौलत का? तेरी ये हालत देख आज मेरे आंसू रोके नहीं रुक रहे हैं... इससे ज्यादा क्या कहूं...

बना फिर रहा चौकस बहुत, पर है तू बुद्धिहीन...
अस्तित्व और अनस्तित्व में बचा है अंतर महीन...
धोखा किया मुझसे, तबाह किए हवा-पानी-जमीन...
संभल जा, अब भी मौका है नादान, अन्यथा
'मां' को दिए हैं दर्द बहुत, देखेगा बहुत दुर्दिन...।

मंगलवार, मार्च 15, 2011

बहुत कुछ कहते हैं ये हाथ तुम्हारे

बहुत कुछ कहते हैं ये हाथ तुम्हारे
सूख गए जीवन संध्या में जैसे पतझड़ में दरख्त

तुमने देखा है जिंदगी का हर पड़ाव
पाताल सा उतार, हिमालय सा चढ़ाव
इनमें पड़ी दरारें और उनसे रिसता रक्त
बहुत कुछ कहते हैं ये हाथ तुम्हारे
सूख गए जीवन संध्या में जैसे पतझड़ में दरख्त


इसका रंग बहुत गहरा उस स्याही से
जिससे लिखा इतिहास- कुछ छुपाने को, कुछ बताने को
बिन बोले बयाँ कर रहा ये पूरी हकीक़त
बहुत कुछ कहते हैं ये हाथ तुम्हारे
सूख गए जीवन संध्या में जैसे पतझड़ में दरख्त

मानो कोई गूंगा बोल रहा हो अपनी बोली
पर समझने को चाहिए धीरज सुनने का
और चाहिए सच स्वीकारने की ताक़त
बहुत कुछ कहते हैं ये हाथ तुम्हारे
सूख गए जीवन संध्या में जैसे पतझड़ में दरख

( ट्रेन में रायपुर ( छत्तीसगढ़) से २४ फरवरी, २०११ को दिल्ली जाते समय ग्वालियर से पहले एक बुज़ुर्ग महिला मिली थी। सिर पर अमरूदों से भरी टोकरी, सूखकर कांटा हो चुके हाथ और उनसे रिसता खून। उसके हाथ देखकर ही उसकी पीड़ा ने इन शब्दों का रूप ले लिया। शायद मैं उसकी सूरत और बेबसी कभी ना भूल पाऊं.)